The India Way by Dr. J.shankar

 विदेश नीति Foreign policy प्रत्येक देश की वह योजना है जिसके अंतर्गत राष्ट्र अपने हितों एवं अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति करते हैं। किसी राष्ट्र की विदेश नीति यह निर्धारण करने में सक्षम होती है कि उसे किस राष्ट्र से अच्छे संबंध रखने है और किससे नहीं। प्रत्येक राष्ट्र अपनी विदेश नीति के आधार पर ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों की स्थापना करता है और इन नीतियों का पालन वह हरहाल में करता है चाहे उस राष्ट्र को कूटनीति का सहारा क्यों न लेना पड़े।





भारत की विदेश नीति की नींव स्वतंत्रता संग्राम के दौरान रखी गई थी जब हमारे नेताओं ने उपनिवेशवाद और नस्लवाद की बुराइयों से लड़ाई लड़ी थी। भारत उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का शिकार रहा है और इन्हें अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए खतरा मानता है। यह दृढ़ता से सभी मनुष्यों की समानता में विश्वास करता है। इसकी नीति का उद्देश्य सभी प्रकार के नस्लीय भेदभाव का विरोध करना है। वह हमेशा किसी न किसी रूप में इसका विरोध करती है।


भारत के विदेश मंत्री एस. जयशंकर की हाल ही में एक किताब रिलीज़ हुई है. द इंडिया वे, इस किताब में उन्होंने विदेश नीति में बिताए अपने वक्त के किस्सों को साझा किया है साथ ही भारत के सामने इस वक्त और आने वाले वक्त में कैसी चुनौतियां हैं इनका जिक्र किया है.


The India Way- Strategy for an uncertain world, जैसा की नाम से ही स्पष्ट है, वर्तमान में भारत की foreign policy, कूटनीति और रणनीति को लेकर लिखी गई है। इसके लेखक है भारत के वर्तमान विदेश मंत्री ( minister of foreign affairs) श्री एस. जयशंकर। विदेश नीति में रुचि रखने वाले लोगों के लिए यह महत्वपूर्ण किताब है। चुकी यह विदेश मंत्री ने अपने व्यक्तिगत आधार पर लिखी है, परंतु इससे हम भारत की भविष्य और वर्तमान विदेश नीति के बारे में अच्छे से झलक सकते है। कारण यह है कि कोई भी नीति सबसे पहले उस क्षेत्र को सम्भालने वाले व्यक्ति के द्वारा निर्धारित की जाती है। एस. जयशंकर भारत के आर्थिक हितों के साथ-साथ सुरक्षा क्षेत्र की अनिवार्यता को भी अच्छी तरह समझते हैं और उन्होंने उसके बीच सही संतुलन बिठाया है।’जयशंकर काफी लंबे समय तक पेइचिंग में भारतीय राजदूत रहे। हाल तक भारत और अमेरिका के द्विपक्षीय संबंधों में गिरावट आई थी, लेकिन जयशंकर को अमेरिका के साथ भारत के रिश्ते में बदलाव और इसमें बेहतरी लाने का श्रेय दिया जाता है। हालांकि उनके दूसरे सहयोगी कहते हैं कि इसका मतलब यह नहीं कहा जा सकता है कि उनकी विदेश नीति अमेरिका पर केंद्रित है। वर्ष 2007 में जयशंकर सिंगापुर में भी भारत के राजदूत थे। यह द्वीपीय देश आसियान क्षेत्र के साथ संपर्क बढ़ाने के लिए काफी अहम है और इससे जयशंकर को यह आभास हुआ कि इस क्षेत्र में सुरक्षा तंत्र विकसित करने की जरूरत है।


विदेश मंत्री एस जयशंकर काफी लंबे समय तक भारत के राजदूत के तौर पर काम करते रहे। जिसका रिकॉर्ड उनके नाम है। इसी कारण चीन से जुड़ी कोई भी रणनीति वो आसानी से समझकर उसे सुलझा लेते हैं। आपको बता दें कि, 2007 में उन्होंने भारत –अमेरिका असैन्य परमाणु समझौते में अपनी भूमिका निभाते हुए काफी अच्छा प्रदर्शन दिया था। इसी के साथ भारत और अमेरिका के बीच देवयानी खोबरागड़े विवाद को हल करने में भी उन्होंने अपनी अहम भूमिका निभाई थी।


एस. जयशंकर ने बुडापेस्ट, प्राग और टोक्यो में भी सेवाएं दी हैं। उन्होंने राजनीति विज्ञान में स्नातकोत्तर करने के साथ ही अंतरराष्ट्रीय संबंध विषय में पी.एचडी. और एम.फिल. किया है। और एस. जयशंकर जी पिछले लगभग 7 सालो से पहले विदेश सचिव और फिर विदेश मंत्री के रूप में काम कर रहे है।




 किताब के शुरुआत में लेखक थिरुवलुवर को कोट करते हुए कहते है- बदलते विश्व में बदलते समय के साथ खुद को बदलना ही बुद्धिमता है।यानी की बदलती परिस्थितियों में भारत को बदलना ही होगा, पुराने चाल ढाल को छोड़ कर वास्तविक विश्व के हिसाब से विदेश नीति क़ायम करनी होगी। अगर भारत को तेज़ी से बदलते विश्व में फ़ायदा उठाना है तो उसे कदम उठाने ही होंगे। यहा पर इस किताब का books short ( किताब संक्षेप) देखेंगे।



Lessons of Awadh—The danger of Strategic Complacency  


अवध से सीख– रणनीतिक आत्म संतोष के ख़तरे 


किसी भी राज्य या समाज का सबसे बड़ा दंड है किसी नीच द्वारा उस पर शासन करना। इस चैप्टर की शुरुआत में उदाहरण के लिए Dr s Jai shankar एक महान फिल्मकार सत्यजीत रे के फिल्म के एक सीन में दो अवध के नवाबो को लिया गया है, ये दोनो आपस में शतरंज खेलने में व्यस्त है जबकि इनके राज्य का हिस्सा धीरे धीरे अंग्रेज अपने क़ब्ज़े में किए जा रहे है। ये मगन हो के खेल में व्यस्त है जबकि धीरे धीरे उनका राज्य ग़ुलाम बनता जा रहा है। आज के समय में पूरे विश्व में power और trade के क्षेत्र में उथल पुथल मची हुई है।चाइना सबसे बड़ी ताक़त बनने की कोशिश में है और अमेरिका अपने प्रभुत्व को समेटते हुए घरेलू मामलों पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। 1991 में शीत युद्ध समाप्त होने के बाद यह लगभग दूसरा समय है जब विश्व मे power equation बदल रही है।


आज अमेरिका एक कमजोर होती शक्ति के रूप में नजर आ रहा है वही हमारे पड़ोस के चीन एक महाशक्ति के रूप में उभर रहा है ऐसे में भारत की सुरक्षा के नजरिए से चीन एक गंभीर खतरा बना हुआ है। पहले भी चीन के साथ हमारी कई युद्ध हुए है चीन के साथ बॉर्डर पर हमेशा तनाव की स्थिति बनी रहती है बदलती हुई इस दुनिया में भारत को अपनी विदेश नीति को गंभीरता से तय करने की जरूरत है। ऐसे में भारत उन दोनो नवाबो की तरह हाथ पर हाथ धर के बैठे नहीं रह सकता। इस दिशा में भारतीय रण नीतिकारो को ज़्यादा वास्तविक और धरातल पर उतरकर सोचना पड़ेगा, ना कि पानीपत सिंड्रोम के रूप में। ये पानीपत सिंड्रोम वाली गलती जो हमने चीन और कुछ हद तक 1971 के बाद पाकिस्तान से की है, उसकी सजा भारत भोग चुका है। America First और Chinese ड्रीम जैसे विचार और सोच उभार पर है। वास्तविकता के हिसाब से अपने देश के फ़ायदे को सामने रखते हुए नितीया बनानी पड़ेंगी। पाकिस्तान को बहुत समय दे दिया की उनमें सुधार आएगा। परंतु ऐसा हुआ नहीं। हम जो भी सबँध या Aliiance बनाने से बचते आ रहे है, उनके बारे में और सोचना है और उन पर कार्य करना है। sustainable developmental goals (SDG) के ऊपर ध्यान और काम भारत को ऐसे ही फ़ायदा दे सकते है जैसे चीन को MDG ने किया था। ये SDG है Digitizatiton, Industrialisation, urbanisation, rural growth, infrastructure और skills इत्यादि।


कभी कभी युद्ध जितने के लिए एक दो छोटी लड़ाई हारनी पड़ती है- डॉनल्ड ट्रम्प। 2016 में डॉनल्ड ट्रम्प के बाद अमेरिका बहुत सारे सम्बंध या alliances से बाहर निकल चुका है, चाहे वो asian ट्रेड ट्रीटी हो या climate change ट्रीटी,unesco या बाक़ी सारे ट्रेड alliances। 


जबकि चीन धीरे धीरे ट्रेड surplus के दम पर पूरे विश्व में अपना प्रभुत्व बढ़ा रहा है।ये भी कहा जाता है कि USA is fighting wars to loose but china is winning without fighting. चीन ने बहुत सारे देशों में अपना अप्रत्यक्ष क़ब्ज़ा जमा लिया है, बिना एक कतरा खून बहाए हुए। अब विश्व unipolar से हट कर multipolar होता जा रहा है। यानी की पहले सारी शक्ति USA के हाथ में थी, लेकिन ये धीरे धीरे उसके हाथ से निकल रही है। चीन, रूस, जापान, यूरोप, भारत, ब्राज़ील, साउथ कोरिया, और आसियान के देश धीरे धीरे अपनी आर्थिक ताक़त बढ़ा रहे है। इस multipolar world में भारत को कैसे आगे बढ़ना है। आगे स्थिति और कॉम्प्लेक्स होने वाली है। भारत को कुछ parameters बनाने पड़ेंगे, और उनके साथ आगे बढ़ना होगा। नया समय नए दोस्त और दुश्मन बना कर सामने लाएगा। इस दोस्ती और दुश्मनी में कैसे बैलेन्स बनाना है, यह भारत को अपने सेट parameters के ऊपर तय करना होगा। 


जयशंकर पुस्तक में लिखते हैं कि भारत को एक ऐसे क्षेत्र में प्रभाव हासिल करने के लिए दृढ़ता से संघर्ष करना पड़ रहा है जो इससे पहले और अधिक आसानी से किया जा सकता था क्योंकि इसकी विदेश नीति में अतीत में "तीन बड़ी गलतियां" रही है।


 ये तीन गलतियाँ है:-


1947 के विभाजन ने देश को जनसंख्या और राजनीतिक, दोनों के लिहाज से छोटा कर दिया.

आर्थिक सुधार में की गई देरी, जो चीन के बाद लगभग डेढ़ दशक बाद शुरू हुआ, चीन के 15 साल के अंतराल के बाद भी भारत अपने भारी नुकसान में है, जिसका कारण भारत के आर्थिक सुधारों में हुई देरी है.

परमाणु विकल्प का संबंधी कवायद का लंबा होना, जिसके परिणामस्वरूप भारत को इस क्षेत्र में प्रभाव बढ़ाने के लिए पराक्रम के साथ संघर्ष करना पड़ा जो पूर्व में आसानी से किया जा सकता था.




शतरंज की बिसातों में निमज़ो-इंडियन डिफेंस को काफी सोलिड माना जाता है. यानी इन चालों से जिसने सामने वाले को मात दे दी और उसे अपनी चालों में फंसा दिया, तो वही असली सिकंदर है. मई के महीने से भारत और चीन के बीच सीमा पर कुछ ऐसा ही हो रहा है, एक चाल चीन चलता है तो फिर भारत उसका जवाब देता है


भारत और चीन के बीच मौजूदा समय में एक खटास इस बात की भी है क्योंकि चीन पाकिस्तान की मदद करता आया है. फिर चाहे वो फंडिंग हो या फिर आतंकियों को बचाना हो. विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने अपनी किताब में भी चीन और पाकिस्तान के रिश्तों पर खुलकर बात की है. किताब में लिखा है, ‘चीन और पाकिस्तान के बीच की दोस्ती हमेशा खटनके वाली लगती है, क्योंकि दोनों देशों में कोई ऐतिहासिक या फिर सांस्कृतिक दोस्ती नहीं है. ऐसे में चीन के दिमाग के टटोलें तो इसका एक ही मकसद है कि वो पाकिस्तान के जरिए भारत के साथ चेक एंड बैलेंस का गेम खेल रहा है. इसका नजारा कई बार दिखा है, जब 1959 में भारत-चीन के रिश्ते बिगड़े तो पाकिस्तान ने जम्मू-कश्मीर की ओर माहौल बिगाड़ना शुरू किया. फिर भारत-चीन में 1962 के युद्ध के बाद पाकिस्तान ने 1963 में अपने कब्जे का हिस्सा चीन को सौंप दिया.’ 


चीन आज के वक्त में एक सुपरपावर के तौर पर खुद को पेश कर रहा है, जो दुनिया के लिए कई मायनों में चिंता का विषय बन रहा है. अपनी किताब में एस. जयशंकर लिखते हैं, ‘2009 के वक्त में जब दुनिया आर्थिक मंदी में डूब रही थी वो वक्त चीन के लिए काफी अहम निकला. शुरुआत से ही चीन ने ऐसी नीति बनाईं जो बिजनेस के लिए जरूरी थीं, भारत वो ना कर सका. इसलिए आज दोनों देश के बीच में व्यापार का अंतर चार गुना है. आज एक उभरता हुआ चीन पूरे एशिया या यूं कहें पूरी दुनिया को बदलना चाहता है. बेल्ट एंड रोड प्रोजेक्ट, चीन-पाकिस्तान इकॉनोमिक कोरिडोर इसी का हिस्सा हैं. भारत को चीन जैसी महाशक्ति का सामना करने के लिए कुछ अलग सोचना होगा, ताकि वह उसके साथ दोस्ती निभाते हुए भी खुद को अलग बना सके. क्योंकि भारत चीन को हमेशा अपने उत्तर में सोचता है, लेकिन अगर वो दक्षिण (श्रीलंका-पाकिस्तान में चीन की पहुंच) में आया तो परिस्थिति बदल जाएंगी.’


भारत में अभी भी ऐसी क्षमता और विकास दर पैदा करने की जरूरत है जो चीन पिछले चार दशकों से कर रहा है. उल्टा भारत ने कई मौकों पर इंडस्ट्री के लिए मुश्किलें बढ़ाई हैं.’ 


Conclusion


 अभी तक भारतीय सरकारें एक ही तरह की लकीर खींचकर उस पर चलती चली आयी है। समय के साथ बदलते परिस्थितियों में यह बदलना चाहिए था। अभी तक भारत सरकार भूत काल के तीन ग़लतियों को अपने सर पर ढोते चली आयी है, इस रूढ़िवादिता के कारण। ये तीन ग़लतियाँ है- 1947 के विभाजन का दर्द, 1950 के आस पास चीन को विश्व राजनीति में ज़्यादा महत्व देना, और जब बाक़ी सारे देश 1970 के आसपास आर्थिक सुधार ला रहे थे, भारत को एक ऐसे क्षेत्र में प्रभाव हासिल करने के लिए दृढ़ता से संघर्ष करना पड़ रहा है जो इससे पहले और अधिक आसानी से किया जा सकता था क्योंकि इसकी विदेश नीति में अतीत में "तीन बड़ी गलतियां" रही है। ये तीन गलतियाँ है:-

1947 के विभाजन ने देश को जनसंख्या और राजनीतिक, दोनों के लिहाज से छोटा कर दिया.


आर्थिक सुधार में की गई देरी, जो चीन के बाद लगभग डेढ़ दशक बाद शुरू हुआ, चीन के 15 साल के अंतराल के बाद भी भारत अपने भारी नुकसान में है, जिसका कारण भारत के आर्थिक सुधारों में हुई देरी है.

परमाणु विकल्प का संबंधी कवायद का लंबा होना, जिसके परिणामस्वरूप भारत को इस क्षेत्र में प्रभाव बढ़ाने के लिए पराक्रम के साथ संघर्ष करना पड़ा जो पूर्व में आसानी से किया जा सकता था. तब भी कोई बदलाव ना करना। परमाणु परीक्षण में देर भी इसी रूढ़िवादिता का एक उदाहरण है।


जब जब भारत ने इस रूढ़िवादिता से कदम हटाए है, सफलता मिली है, जैसे की 1971 का युद्ध, 1992 के आर्थिक सुधार, 1998 के परमाणु परीक्षण और 2006 की न्यूक्लियर डील। भारत को अपनी पुरानी सोच और धर्मसंकटो को छोड़ कर आगे बढ़ना होगा। कुछ निर्णय लेने होंगे जो भले ही विश्व के अधिकांश देशों को ना पसंद है। हमें यहा किसी को खुश करने के लिए नहीं बल्कि अपने देश को आगे बढ़ाने के लिए निर्णय लेने होंगे





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